अनुराधा की ‘आजादी मेरा ब्रांड’ लड़कियों से सपनों को जी लेने की बात करती है

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आपने कभी अपने मन की सुनी? कभी यूं ही अनजानी जगहों की यात्राओं पर चल पड़े? नहीं, तो अनुराधा बेनीवाल (Anuradha beniwal) की ‘आजादी मेरा ब्रांड’ से गुजरिए।

किसी ने ठीक ही कहा है कि कुछ पुस्तकें चखने के लिए होती हैं, कुछ निगल जाने के लिए। कुछ को चबा-चबा कर पचाना होता है।

कम से कम पुस्तक, साहित्य और समालोचना में तो यह निर्विवाद तथ्य है। बस खत्म ही होने वाली है 187 पेज की यह किताब, जिसके अब  पाँच  ही पन्ने रह गए हैं। इसलिये उठा के ऱख दी है।

क्योंकि लेखिका अनुराधा  स्विटरजरलैंड (बर्न) से अपने वतन  वापस आ रही हैं। यात्रा के इस पड़ाव में अगर उन्होंने कुछ कमाया है तो वह है ढेर सारा आत्मविश्वास।

किताब के समाप्त  हो जाने का बुरा भी लगता है।  बिल्कुल ऐसा जैसे कि बेटी  को ससुराल छोड़कर आने पर लगता है।

शब्दों से बुना हुआ एक इंद्रधनुष, कहानी की कोख में ही गुम होने वाली लड़की, अथातो घुमक्कड़ जिज्ञासा, राहुल सांकृत्यायन का यात्रा वृत्तांत (travelogue)  वोल्गा से गंगा को पढ़ने के के बाद इसको पढना एक फ़क़ीरी, आजादी और यायावरी  को महसूसने जैसा है।

अनु कहती हैं कि इसको  पढ़ने के बाद अगर मुझे कोई आवारा, फालतू,  घुमक्कड़ या फिर  बदचलन भी कहे तो मैं उसका बिल्कुल बुरा नही मानूँगी।

और हमारे देश मे यदि कोई टिपिकल भारतीय परिवार में कोई लड़की केवल इतना भर  कह दे कि मैं थोडा टहल आती हूँ बाहर, तो परिवार असहज सा होने लगता है।

पर ये लड़को पर लागू नही होता। ये किताब वास्तव में एक ‘आजादी’ का दस्तावेज या फिर यूँ  कहें कि वह झरोखा देती है।

किसी महिला को अपनी सोच, अपनी जिजीविषा को पूरा करना, किसी अजनबी शहर में अजनबियों के साथ यात्रा करना, उस शहर को समझना और फिर उसका होकर रह जाना।

केवल फ़ोटो खींचकर उसको कैमरे में कैद करने की जल्दबाजी  से उस शहर या गॉव को समझा नही जा सकता।

यह तो छिछोरापन-सा नजर आता है। थोड़ा रुक कर, ठहरकर उस शहर को महसूस करना, उसके इतिहास, भूगोल, बोली,भाषा, रहन-सहन, खान-पान, आदतें, सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक संरचना को समझना होता है।

और फिर पता ही नही चलता कि कब वह शहर आपको अपना बना ले। लेखिका बड़ी निश्चिंतता से अजनबियों और होस्ट्स के बीच तसल्ली से घूमती है और नींद लेती हैं।

ये संस्मरण सोचने को मजबूर करता है कि हमारा देश कितना तैयार है  महिला सुरक्षा की गंभीरता को लेकर‌।

अनुराधा (Anuradha) यूरोप (Europe) की यात्रा, जो वह लंदन से शुरू कर पेरिस बर्शल्स, एम्स्टर्डम, प्राग, बुडापेस्ट, म्यूनिख, और बर्न (स्विटरजरलैंड) मे जाकर समाप्त करती  हैं। और  वतन लौटते समय वह लाती है अपने साथ ढेर सारा आत्मविश्वास, आखों की दीप्ति और कभी न मरने वाली जिजीविषा।

अनुराधा (Anuradha) की आजादी मेरा  ब्रांड एक नए सिरे से स्त्री दर्शन का यह आधारभूत तथ्य रेखाँकित  कर रही है कि परिवार, रक्त और यौन सम्बधों के दायरे तक सीमित नही माने जाने चाहिए।

यौनिकता, नैतिकता और परिपक्वता की  नई परिभाषा कोई पदानुक्रम  नही मानती। अनु के लिखने में कोई गुस्सा नही झलकता जैसा कि अमूमन  स्त्रीविमर्श पर  लिखनें वाले करतें हैं।

अनुराधा (Anuradha) चतुर हैं। थोड़ी गुस्सैल भी, लेकिन उद्दंड नहीं हैं। वह स्त्री और पुरुष दोनो पर ही अपने लेखन में साम्यता रखती है और जीती भी उसी भाव से हैं।

वह सीधा और सपाट लिखती है।काँधों पर बिना अर्थो का बोझ डाले, किताब के सहारे अनु अपनी नई छवि का फ़क़ीरी अंदाज , संतुलन, दृढ़ता, आत्मविश्वास से प्रस्तुत करती है।

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अब इंतजार कैसा? आप भी निकल पड़िए अपनी मनचाही यात्रा पर, अपने तमाम बंधनों और  समय को पीछे छोड़ते हुए।

लेखक-संजय नौटियाल

करीब दो दशक से शिक्षा जगत से नाता। संप्रति अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन में शिक्षक शिक्षा (टीचर एजुकेशन) के बतौर कार्यरत हैं।

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