हिमालय के रोमांचक सफर पर नीति, माणा, मलारी से गुजरते हुए

1 min read

हिमालय (Himalaya)! आज आपको मनमीत संग इसके रोमांचक सफर पर ले चलते हैं। इस दौरान नीति घाटी, माणा गांव,  मलारी जैसे पड़ावों से गुजरेंगे…

काराकोरम श्रृंखलाओं के दामन में बसे बाल्टिस्तानी गांव तुरतुक के किनारे बहने वाली स्योक नदी। जिसके ठंडे जमे पानी में नहाने के बाद मुझे सुस्ताने के लिये दो साल मिले।

इन दो सालों में महानगरों की तंग गलियों में मेरी देह तो फंसी रह गई, लेकिन दिल और दिमाग काराकोरम हिमालय (Himalaya) के दुर्गम दर्रों में कहीं बर्फ के नीचे दबा था।

स्योक से पहले मैं, तिब्बत सीमा के नजदीक उच्च हिमालय (Himalaya)  में मौजूद चंद्रताल, पांगोंग त्सो, त्सो मोरिरी जैसी कई ग्लेशियर से बनी मोरेन झीलों में डुबकी लगा कर अपने शरीर में जम चुकी गर्द का नैचुरल डायलिसिस कर चुका था।

इन सभी बातों से लंबा वक्त बीत जाने के बाद सोच ही रहा था कि इस बार हिमालय (Himalaya) जाऊं या फिर कहीं रूस की अल्ताई श्रंखलाओं में ही फिर आऊं।

चिंगिज ऐटमाटोव की कहानी, मेरा पहला अध्यापक पढे सालों बीत चुके थे, लेकिन तब से दिल अल्ताई श्रृंखलाओं के लिये बेचैन था।

अक्सर सोचता, जैसी कंपकंपी मुझे सियाचिन के बर्फीले ग्लेशियरों में महसूस हुई या जैसा जड़ मैं कभी हिमालय (Himalaya) की किसी श्रृंखला को चढते हुये हुआ, वैसा ही क्या मुझे अल्ताई भी महसूस कराएंगे?

क्या पहाडी होने के नाते वो मुझे वो सम्मान देंगे जो मुझे मेरा घर हिमालय (Himalaya) देता आया है। मार्च में जाने ही वाला था कि लाॅकडाउन आ गया। एक महीना, दो महीना और फिर चार, पांच . . .।

ओह, अगस्त का आखिर भी आ गया। सितंबर नौ को हिमालय (Himalaya) दिवस मनाया जाता है। लिहाजा बेचैनी बढ गई। मैंने सोचा, छोड़ो अल्ताई, वहां फिर कभी।

इस बार भी हिमालय (Himalaya)। पांच सितंबर की सुबह एक झटके से उठा और सामान पैक करने लगा। शाम को तय किया कि अब की बार 4400 मीटर की उंचाई पर नीलकंठ पर्वत के उत्तरी पश्चिम छोर पर स्थित सतोपंथ झील में डुबकी लगानी है और उससे भी पांच किमी आगे स्वर्गरोहनी तक जाना है।

लेकिन इस बार मैं अकेले नहीं था, कुछ और साथी भी जुड गये। इसी दौरान मैंने अपने हिमालय (Himalaya) और  स्वर्गरोहणी ट्रेक की बात उत्तराखंड अंतरिक्ष उपयोग केंद्र के निदेशक और वरिष्ठ भूगर्भीय वैज्ञानिक डा प्रो एमपीएस बिष्ट को बताई तो उन्होंने तुरंत मिलने को कहा।

मैं उनसे मिला तो उन्होंने बताया कि तुम बेहद कठिन सफर पर जा रहे हो। उन्होंने आगे बताया कि सतोपंथ से पहले अल्कापुरी और भगीरथ खरक ग्लेशियर का संगम है। यहीं से अलकनंदा नदी का उद्गम होता है।

डा बिष्ट ने बताया, ये पूरा इलाका मेरा शोधक्षेत्र है। कई बार गया हूं यहां। तुम वहां जा रहे हो तो एक तो सतोपंथ झील की और ग्लेशियरों की हालत भी देख आना।

उन्होंने मुझे ताकीद भी की कि अच्छे डीएसएलआर कैमरे से फोटो खींचना। मैंने उनसे वादा किया कि उनके आदेश की तामील होगी।

अगले दिन छह सितंबर की सुबह दून से चले तो लगभग तीन सौ किमी का सफर कर शाम को जोशीमठ पहुंचे। जोशीमठ पहुंचने में हमें सौ किलोमीटर का सफर इसलिये भी ज्यादा करना पडा क्योंकि, ऋषिकेश से आगे बद्रीनाथ तक ऑल वेदर रोड का काम तेजी से चल रहा है।

देवप्रयाग में तोता घाटी के बहुत संकरा होने के चलते इस हाइवे को  एक माह के लिये बंद किया गया था। जिस कारण वाहन ऋषिकेश से टिहरी होते हुये श्रीनगर जा रहे थे।

ये रूट लगभग 120 किमी ज्यादा है। रास्ते भर हमें पहाडों पर चढ़े जेसीबी और पोकलैंड चटटानों को खोदते नजर आये।

हमने देखा कि नियमों के विरूद्ध कंस्ट्रक्शन कंपनियां मलबा डंपिंग जोन में डालने के बजाये सीधे अलकनंदा नदी में डाल रही है। पहाड़ों के साथ इस तरह का दुराचार देखकर दुख बहुत हुआ।

जोशीमठ पहुंचने पर पहले से हमारे कई साथी हमारा इंतजार कर रहे थे। इसमें गढवाल मंडल विकास निगम से जुडे अधिकारी और कुछ पत्रकार साथी भी थे।

हम जोशीमठ छह सितंबर की शाम को पहुंचे, जबकि हमारा ट्रेक आठ सितंबर की सुबह भारत के अंतिम गांव माणा से शुरू होना था।

इसका मतलब हमारे पास सात सितंबर का पूरा एक दिन मौजूद था। इस पूरे एक दिन का क्या किया जाए ?

तय हुआ कि क्यों न नीति घाटी जाया जाए। हमें ट्रेक करने की शुरूआत जहां से करनी थी, वो माणा गांव भी भारत का अंतिम गांव था और जहां हमें सात सितंबर को महज घूमने के लिये नीति गांव जाना था, वो भी दूसरी छोर पर पढ़ने वाला देश का अंतिम गांव ही है।

माणा में जहां भोटिया जनजाति के लोग रहते हैं, वहीं नीति में रोंग्पा जनजाति है। अमूमन, उत्तराखंड में ज्यादातर लोग माणा और नीति का नाम एक साथ लेते हैं।

जिससे कई लोगों को ये गफलत होती है कि ये अगल-बगल के गांव हैं। लोग ही क्या, सरकारी अमला भी कभी कभी इन दोनों सीमांत गांव को एक साथ जोड देता है।

जबकि दोनों की दूरी एक दूसरे से लगभग डेढ सौ किलोमीटर होगी। इसमें एक बेहद पुराना किस्सा भी है। वरिष्ठ माक्र्सवादी नेता और इतिहासकार विजय रावत के नाना श्याम सिंह राणा 19 वीं सदी के पूर्वाद्ध में नीति और माणा गांव में पटवारी (राजस्व निरीक्षक) थे।

एक दिन उन्हें ब्रिटिश पौडी गढवाल से फरमान आया कि एक अंग्रेज अफसर एक सप्ताह बाद की तारीख को नीति-माणा आ रहे हैं।

अंग्रेज अधिकारी दोनों ही जगह निरीक्षण करेंगे। इसलिये दोनों ही जगह पटवारी जाकर व्यवस्था मुकम्मल करे।

पत्र पढते ही पटवारी श्याम सिंह राणा का दिमाग गर्म हो गया। उन्होंने पत्र को एक तरफ फेंकते हुये झटके से कहा, ‘कहां नीति कहां माणा, एक श्याम सिंह पटवारी ने कहां कहां तो जाणा’।

आज भी ये कथन हर वो उत्तराखंडी दोहराता है, जिसे ज्यादा काम दे दिया जाता है और वो काम उसके क्षमताओं से ज्यादा हो।

खैर……हम सुबह नीति घाटी के लिये रवाना हो गये। जोशीमठ से नीति (neeti) गांव की दूरी लगभग 85 किमी है। सडक बार्डर रोग आर्गेनाइजेशन की बेहतरीन बनाई हुई है। लगभग 17 किलोमीटर आगे पहुंचने पर सडक के दायीं ओर पहाड से भाप निकलती हुई दिखती है।

यहां पर गर्म पानी का स्रोत है। सडक किनारे ही स्रोत मौजूद हैं, चाहें तो कार से उतर कर स्रोत में हाॅट स्टीम बाथ भी ले सकते हैं। यहां से चार किमी आगेे चलने के बाद चिपको आंदोलन की प्रेरणास्रोत गौरा देवी का गांव रैणी आ जाता है।

गांव के नीचे ही ऋषि गंगा और धौलीगंगा नदियों का संगम है। साठ किमी आगे चलने पर मलारी गांव में पारम्परिक वस्त्र पहने महिलाएं जल धाराओं में पानी भरती हुई दिख जाती है।

खेतों की मुंडेरों पर खडा काश्तकार भविष्य की परिकल्पनाओं में खोया हुआ होता है तो बूढे अपने नातियों-पोतियों को भूत का गहरा पाठ पढाने में खोये हुये होते है।

एक जीवंत गांव। मलारी (malari) पहुँचते ही देवदार और भोजपत्र के घने जंगलों के बीच हिडिम्बा देवी का मंदिर है, हिडिम्बा को स्थानीय लोग हिरमणी भी कहते हैं।

द्रोणागिरी पर्वत मलारी (malari) का एक अन्य आकर्षण है। कहा जाता है कि हनुमान संजीवनी बूटी द्रोणागिरी पर्वत से ही लेकर गये थे। समतल चैड़ी पहाड़ी पर बसे मलारी में एक 5000 साल पुराना अखरोट का पेड़ है।

कहते हैं कि इस पेड़ से चन्दन की महक आती है। किवदंती है कि पांडव इसी पेड़ के नीचे धनुर्विद्या का अभ्यास किया करते थे।

यहां पर हुई खुदाई में पुरातात्विक महत्त्व के पत्थर से बने शवगृह मिले हैं, इन शवों का पुरातात्विक व ऐतिहासिक दृष्टि से विशेष महत्त्व है।

इसके अलावा यहां पर शवों के साथ ही मिट्टी के बर्तन च घोड़े के कंकाल भी मिले हैं। वैज्ञानिकों का दावा है कि प्राचीन काल में यहां पर पशुपालक समाज रहा करता होगा।

शायद मरने वाले के साथ उसका घोड़ा भी दफना दिया जाता होगा। इतिहासकार इन अवशेषों को चैथी शताब्दी (ई.पू.) से दूसरी शताब्दी (ई.पू.) तक का बताते हैं।

यहां 3500 मीटर की उंचाई पर समुद्री जीवों के भी अवशेष मिले हैं, जिससे अनुमान लगाया जाता है कि कभी यहां पर कभी समुद्र रहा होगा।

इससे वैज्ञानिकों के इस दावे को भी बल मिलता है कि हिमालय (Himalaya) कभी टैथिस सागर हुआ करता था। जो टेक्टोनिक यूरेशियन प्लेटस के खिसकने के कारण हिमालय (Himalaya) पर्वत के रूप में आज उस रूप में भौगोलिक रूप से खडा है, जिस रूप में आज हम उसे देख पा रहे है।

यहां मिले सोने के मुखौटे से यह भी अनुमान लगाया जाता है कि यहां मार्छा जनजाति के लोगों का भी आवास रहा होगा।

मलारी से आगे अंतिम पड़ाव नीति (neeti) गांव था। नीति गांव के बाद फिर कामेट ग्लेशियर समेत कई अन्य हाई एल्टीटयूड टेकों की शुरूआत होती है।

नीति घाटी से लौटते वक्त मैं जीप में बैठा सोच रहा था कि, मैं कश्मीर की विभिन्न घाटियों में बहते झरनों और नदियों का पानी से अपना हलक तर चुका हूं।

मैं हिमाचल के खूबसूरत सेब के बगीचों और शीत मरूस्थलों में फिरता रहा हूं। बेशक इन सभी जगहों की खूबसूरती मुकम्मल है और न मेरे लिये ये सभी जगह अग्यार है।

लेकिन, अब मैं सोच रहा था कि अपनी उम्र का एक लंबा दौर गुजर जाने के बाद नीति घाटी गया तो अफसोस भी हुआ और खुशी भी कि जिस जन्नत को हर जगह तलाशा, वो यहां मिली।

ये बात तो तय है कि अगर जहांगीर कभी घूमने फिरने उत्तराखंड की नीति घाटी में आता तो इतिहास के पन्ने कुछ और ही रोजनामचों से भरे होते। तय था कि वो कश्मीर को भूल जाता। यहीं पर उसके मुंह से वो ऐतिहासिक नज्म निकलती, गर फिरदौस बर रूए जमीं अस्त, हमीं अस्तो, हमीं अस्तो, हमीं अस्तोष्, मतलब अगर धरती पर कहीं स्वर्ग है तो यहीं पर है, यहीं पर है और सिर्फ यहीं पर है।

नीति घाटी में दूध सी जलधारा समेटे हुये धौलीगंगा है तो देवदार के पेडों का खूबसूरत जंगल भी है। सेब की उम्दा प्रजाति के बगीचे, विभिन्न रंग-बिरंगे प्रजातियों के फूल हैं तो हिमाच्छादित पर्वतों का सम्मोहन भी है।

जो नहीं है वो है कश्मीर में चहल कदमी करते हुये लगने वाला अलगाववादी डर और उत्तराखंड सरकार की दूरदृष्टि।

शाम को हम जोशीमठ होते हुये सीधे बद्रीनाथ लौटे। बद्रीनाथ से लगभग तीन किलोमीटर आगे चीन सीमा की तरफ माणा (mana) गांव है। यहीं से अगले दिन की सुबह, हमारे चार दिन के ट्रेक की शुरूआत होनी थी। इस बार माणा गांव पहुंचा तो एक नई चीज दिखी।

माणा (mana) गांव के ऊपर से एक सडक का निर्माण हो गया है। पूछा तो पता चला कि ये सीधे 54 किमी आगे माणा पास तक जा रही है। जो की इस समय दुनिया की सबसे उंचाई में स्थित मोटरेबल पास है।

इस मोटेरेबल दर्रे की उंचाई 18,192 फीट है। इससे पहले वर्ल्ड रिकाॅर्ड लेह से नुबरा घाटी जाने के दौरान रास्ते पर पढने वाला खारदुंगला दर्रे 17,852 फीट है।

माणा दर्रे सेे थोडा आगे ही चीन की सीमा लगती है। इसलिये भी ये सड़क भारत के लिये बहुत खास है। मैंने इस बारे में माणा गांव के प्रधान पीतांबर सिंह मोलपा से पूछा तो उन्होंने बताया कि उत्तराखंड से लगती चीन सीमा सुरक्षा की दृष्टि से वैसे तो महफूज रही है।

1962 और 1989 के युद्ध में भी यहां की सीमाओं पर चीनी सैनिकों का मूवमेंट नहीं हुआ था। इसके पीछे कारण ये है कि यहां पर भारतीय फौजों की चेकपोर्ट काफी उंचाई पर है।

वो चीन के हर मूवमेंट पर पैनी नजर रख सकते है। इन सीमाओं को महफूज बनाने में फ्रंटलाइन के गांवों का भी विशेष महत्व है।

पहले बद्रीनाथ धाम से 58 किमी दूर माणा दर्रे तक सड़क नहीं थी। तब माणा गांव के लोग ही सेना का साजो-सामान और रसद सीमा तक पहुंचाते थे।

प्रधान पीताम्बर सिंह मोलपा आगे बताते हैं कि 2003 तक हमारे गांव के लोग ही सेना का सामान कई दुर्गम पहाड़ों को पार कर सीमा तक पहुंचाते थे।

उस वक्त उनके पिता पदम सिंह मोलपा ने भी 1962 से 2003 तक सेना का सामान पहुंचाने का काम किया। प्रधान पीताम्बर सिंह मोलपा बताते हैं कि आजकल सेना का मूवमेंट भी काफी बढ़ गया है।

हालांकि अब माणा पास तक सड़क बन चुकी है और सेना के पास हेलीकॉप्टर भी है। पीताम्बर सिंह मोलपा बताते हैं कि पहले गांव के लोग सेना के साथ पेट्रोलिंग में भी जाते थे। कई गांव के लोगों को तो जासूस बना कर तिब्बत भी भेजा गया था।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *