जान एलिया : अमरोहा का वह शायर जो कराची में सुपुर्द-ए-खाक हुआ पर दिलों में अब भी जिंदा है

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जान एलिया (John Elia)। जी हां, अमरोहा का वह शायर जिसकी काया कराची में सुपुर्द-ए-खाक हुई, लेकिन अपनी शायरी से वह लोगों के दिलों में अब भी जिंदा है।

जान एलिया (John Elia) ने 14 दिसंबर, 1931 में अमरोहा में आंखें खोली थीं। उन्हें उर्दू, अंग्रेजी, संस्कृत जैसी भाषाओं का गहरा ज्ञान था, लेकिन उनका मन शायरी में रमता था।

26 साल की उम्र में 1957 में वह कराची (पाकिस्तान) चले गए। उनकी शायरी हमेशा दर्द के अफसाने सुनाती रही। कलाम पेश करते करते वह रोने लगते।

उन्हें शराब की भी लत लगी। और इसके बाद तो यूं हुआ कि वह समझते कि वह शराब पी रहे हैं, लेकिन दरअसल, शराब उन्हें पी रही थी। वह होते तो 89 के हो गए होते।

जान ने लिखा-

बेदिली! क्या यूँ ही दिन गुजर जायेंगे
सिर्फ़ ज़िन्दा रहे हम तो मर जायेंगे

ये खराब आतियाने, खिरद बाख्ता
सुबह होते ही सब काम पर जायेंगे

कितने दिलकश हो तुम कितना दिलजूँ हूँ मैं
क्या सितम है कि हम लोग मर जाएंगे।

उन्हें जाने किसकी तलाश थी कि वह कह पड़ते-

उम्र गुज़रेगी इम्तहान में क्या?
दाग ही देंगे मुझको दान में क्या?

मेरी हर बात बेअसर ही रही
नुक्स है कुछ मेरे बयान में क्या?

बोलते क्यो नहीं मेरे अपने
आबले पड़ गये ज़बान में क्या?

मुझको तो कोई टोकता भी नहीं
यही होता है खानदान मे क्या?

अपनी महरूमिया छुपाते है
हम गरीबो की आन-बान में क्या?

वो मिले तो ये पूछना है मुझे
अब भी हूँ मै तेरी अमान में क्या?

यूँ जो तकता है आसमान को तू
कोई रहता है आसमान में क्या?

है नसीम-ए-बहार गर्दालूद
खाक उड़ती है उस मकान में क्या

ये मुझे चैन क्यो नहीं पड़ता
एक ही शख्स था जहान में क्या?

उनकी साफगोई देखने लायक थी। उन्होंने वह कहने में कभी गुरेज नहीं किया, जो उनके दिल में था। यह देखिए-

उसके पहलू से लग के चलते हैं
हम कहाँ टालने से टलते हैं

मैं उसी तरह तो बहलता हूँ यारों
और जिस तरह बहलते हैं

वोह है जान अब हर एक महफ़िल की
हम भी अब घर से कम निकलते हैं

क्या तकल्लुफ़ करें ये कहने में
जो भी खुश है हम उससे जलते हैं

है उसे दूर का सफ़र दरपेश
हम सँभाले नहीं सँभलते हैं

है अजब फ़ैसले का सहरा भी
चल न पड़िए तो पाँव जलते हैं

हो रहा हूँ मैं किस तरह बर्बाद
देखने वाले हाथ मलते हैं

तुम बनो रंग, तुम बनो ख़ुशबू
हम तो अपने सुख़न में ढलते हैं।

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